गर्भवती महिलाओं में यह बीमारी तब अधिक होती है जब वे बच्चे को जन्म देती हैं। इस रोग को सुवारोग भी कहते हैं।
यह रोग तब होता है जब एक महिला प्रसव के बाद परहेज़ नहीं बरतती और गलत आहार लेती है, विपरीत प्रकार का भोजन करती है और दोषपूर्ण आहार खाती है।
सुवारोग के लक्षण
गर्भवती महिलाओ को यह रोग होनेसे टूटे हुए अंगों जेसा दर्द, ठंड लगना, बुखार, शुष्क मुंह और प्यास, सूजन, पेट का दर्द, दस्त, शक्ति की कमी और वात व कफ जन्य लक्षण जैसे की विकार और मंदाग्नि (एनोरेक्सिया) इत्यादि लक्षण से पीड़ित होती हैं। ऐसे लक्षण उपद्रव मचाते हैं।
सुवारोग के कारण
प्रसव के दौरान हाथ कीटाणुरहित किए बिना योनि को छूने या प्रसव में प्रयुक्त अशुद्ध उपकरणों से योनि को छूने से रोग हो सकता है।
अगर प्रसूता स्त्री स्वच्छता से अनजान है और योनि और उसके आसपास साफ-सफाई नहीं रखती है, तो भी इस बीमारी की आशंका रहती है।
यह वांछनीय है कि कार्यमे पृवृत्त होनेसे पहले प्रसूति विशेषज्ञ या चिकित्सक अपने कपड़ों, उपकरणों और अंगों को जंतुमुक्त औषधीय युक्त पानी से साफ करें। यदि उन्हें मुंह का कोई रोग हो तो मुंह पर कपड़ा बांध लें ताकि बोलने वाली लार के माध्यम से दोष योनि को स्पर्श न करे।
काफी संजोगोमे अक्सर प्रसव के दौरान अक्सर योनि फट जाती है और इसमे घाव हो जाता हैं। इन घावों के माध्यम से भी दोष योनि में प्रवेश कर रोग उत्पन्न कर सकता है। दोष फैलाने के लिए योनि मे एक बड़ा केंद्र होता है, इसलिए यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि घाव या दोष योनीमे न हो।
कुछ माताएँ बहुत प्रयास से बच्चे को जन्म देती हैं और अक्सर इन कठिन समय के दौरान योनि फटने पर बुखार आदि के लक्षण होते हैं। साथ ही जब योनि फट जाती है तो कभी-कभी उसका कुछ हिस्सा अंदर रह जाता है।यह हिस्सा सड़ जाता है और बदबू आने लगती है और इस रोग का कारण बनता है।
प्रसव के दूसरे दिन के बाद योनि की बदबू, योनि से मिट्टी जैसा रंग का स्राव, गर्भाशय मे नाजुकता और सूजन जैसा लक्षण दिखाय दे तो हो सकता है की रोग पेदा हुआ हो।
यह रोग होनेसे गर्भाशय मे संकुचन नहीं होता है और बुखार बहुत अधिक प्रतीत होता है। यदि पहले सर्दी हो और फिर बुखार हो, तो संवहनी जांच (नाड़ी परीक्षण) की जानी चाहिए ताकि मां की स्थिति का पता चल सके।
योनि स्राव बड़ी मात्रा में होता है और कभी-कभी यह निर्वहन पूरी तरह से बंद हो जाता है। इस स्राव से सड़े हुए मांस जैसी गंध आती है।
रोग के शुरुआती दिनों में जब रोग प्रथम तब्बकेमे हो तब जीभ खुरदरी, सूखी और चमकदार दिखाई देती है। इस रोग के परिणामस्वरूप पेट में गंभीर सूजन और खूनी उल्टी होती है। यह परिस्थितिमे नतीजा बहुत बुरा होता है।
यदि इस रोग के कारण अतिसार हो जाता है तो इससे दुर्गंध आती है और रोगी की स्थिति ठीक नहीं रहती है।
पेट में असहनीय दर्द, सूजन, गर्भाशय पर दर्द, पेटमे वात बढ़ जाना, जी मिचलाना, तेज दस्त होने पर यह रोग लाइलाज हो जाता है।
यदि प्रसव के 40 दिनों के दौरान प्रसव के दौरान कोई बीमारी होती है, तो उसे सुवारोग (प्रसव दौरान होने वाले रोग) बीमारी के रूप में इलाज करना आवश्यक माना जाता है। यह उपचार ज्यादातर वातज दोषों मे कीए जाने वाले उपचार करना होता है।
इलाज
दशमूल के गर्म कवाथ (काढ़े) में घी डालके पिलाए। बुखार तेज होने पर मां को ठंड न लगने की व्यवस्था करें।
योनि से दुर्गंध युक्त स्त्राव आने पर और सारे बदन में दर्द होने पर सवा तोला दशमूलारीष्ठ, और दो तोला काकमाची अर्क भोजन के आधे घंटे बाद पिलाए।
अगर शरीर को दशमूलारिष्ट न भाए तब इसके स्थान पर दशमूलार्क दिया जा सकता है या देवदार्वादी कवाथ (काढ़ा) भी दिया जा सकता है। साथ ही जिरकाधारिष्ठ, पंचजीरक पाक, यवादी युष, सौभाग्यसुंठी, प्रसूत रोग युष – ये सब औषधीया प्रसूत रोगमे प्रायोजित की जाती है।
लाक्षादी तेल या बला तेल या प्रसारणी तेल, कोई एक तेल लेकर पूरे शरीर पर मालिश करें।
योनि बस्ती के लिए औषध
40 तोला केरिया की हरी छाल
02 तोला छोटी इलायची
02 तोला गेरू
05 तोला रसोत
05 तोला कत्था
05 तोला टंकण भस्म
ये सभी जड़ी बूटियों को आठ शेर (4 लिटर) पानी में उबाल लें और आधा हिस्से जल जाने पर और 2 लिटर बचे रहने पर आग से पानी नीचे उतार कर ठंडा होने दें। ठंडा होने के बाद अच्छी तरह छान लें और एक साफ कांच की बोतल में भरले।
इस पानीकी पिचकारी योनि में देने से (यौन बस्ती देनेसे) योनि में दुर्गंध युक्त स्त्राव आना, योनि में दोष, गर्भाशय में दोष, सूजन आदि जैसी समस्याएं दूर हो जाती हैं।
प्रसूता स्त्री की योनि और उसके आसपास की जांच करें। यदि आपको कोई घाव, छाले, फोड़े, आदि दिखाई दें, तो पहले इन भागों को रुई से साफ करें। फिर दूधी भोपला का पान और भोलिया दोनों जड़ी-बूटियों को पानी में मिलाकर एक कटोरी मलहम बना लें। इस मलहम को योनि और उसके भागों पर लगाने से सभी प्रकार के घाव और सभी प्रकार के योनि संक्रमण शांत हो जाते हैं।
परहेज़
आहार में पुराने चावल, जठराग्नि प्रदीप्त हो एसा भोजन, मसुर, मग का यूष, बेंगन, मूली, परवल आदि का सेवन करना चाहिए।
भोजन में भारी वस्तुएं, तेज पेय, आग के सामने बैठना, कड़ी मेहनत करना आदि रोगी के लिए फायदेमंद नहीं होते हैं इसलिए इससे दूर रहें।