भगंदर
गुदा की ऊपरी हिस्से पर दो अंगुल तक पीड़िका (फोड़ा) निकल आते हैं। इस फोड़ा फटने के बाद, यह भाग पर एक व्रण (घाव) बन जाता है। जिसे फिस्टुला (भगंदर) कहते हैं। फिस्टुला पांच प्रकार का होता है।
1 वातज फिस्टुला (शतपोतक भगंदर)
2 पित्तज फिस्टुला (उष्ट्रग्रीव भगंदर)
3 कफज फिस्टुला (परिस्रावी भगंदर)
4 सन्निपातज फिस्टुला (शम्बुकावर्त भगंदर)
5 आगंतुज फिस्टुला (उन्मार्गी भगंदर)
1 वातज फिस्टुला (शतपोतक भगंदर)
रस कस विहीन, कच्चे, बासी, सूखे, सूखे खाद्य पदार्थों का सेवन वायु को दूषित करता है और इसे अत्यधिक कुपित करता है और मलाशय क्षेत्र में फोड़ा पैदा करता है। ये फोड़ा (पीड़िका) को नजरअंदाज करने से समय के साथ पक कर वो गंभीर दर्द और परेशानी पैदा करती है। इसके फटने से उसमें से मवाद निकलता है। और इस जगह व्रण बन जाता है। इस बीमारी की उपेक्षा करने से कई ओर छोटे घाव हो जाते हैं। जिसमें से मूत्र, मल और वीर्य स्रावित होता है। इसे वातज फिस्टुला (शतपोतक भगंदर) कहते हैं।
2 पित्तज फिस्टुला (उष्ट्रग्रीव भगंदर)
पित्त के कारण मलाशय के क्षेत्र में लाल रंग का, तुरंत परिपक्व होनेवाला, गर्म और दुर्गंधयुक्त स्राव पैदा करने वाला भगंदर रोग पैदा होता है। फिस्टुला ऊंट की गर्दन के आकार का होता है। इसलिए इसे उष्ट्रग्रीव भगंदर (फिस्टुला) कहते हैं।
3 कफज फिस्टुला (परिस्रावी भगंदर)
इस तरह के फिस्टुला में खुजली होती है। इससे निकलने वाला डिस्चार्ज बहुत घना होता है। यह नालव्रण (भगंदर) कठोर, धीमा दर्दनाक और सफेद रंग का होता है।
4 सन्निपातज फिस्टुला (शम्बुकावर्त भगंदर)
इस तरह के फिस्टुला में कई व्रण होते हैं जो कई तरह के दर्द का कारण बनते हैं। इस प्रकार के व्रण में से कई तरह के स्राव देखने को मिलते हैं। इसका आकार गाय के थन के आकार समान और नदी के प्रवाह में उभरी हुई भौं के समान होता है। जिसे सन्निपातज फिस्टुला (शंबुकावर्त भगंदर या नालव्रण) कहते हैं।
5 आगंतुज फिस्टुला (उन्मार्गी भगंदर)
समय के साथ गुदा क्षेत्र में उत्पन्न नालव्रण की उपेक्षा करने से वो भयानक रूप ले लेता है और इसमें कृमि (कीड़े) पैदा हो जाते है। ये कीड़े व्रण को चीर के कई मार्ग बना लेता हैं। जिसके परिणामस्वरूप और भी कई अल्सर (व्रण) हो जाते हैं। इसे आगंतुज फिस्टुला (उन्मार्गी भगंदर) कहते हैं।
सभी प्रकार के फिस्टुला भयानक और कष्टसाध्य होते हैं। लेकिन त्रिदोषज और उन्मार्गी भगंदर (फिस्टुला) को आमतौर पर लाइलाज माना जाता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि नालव्रण से निकलने वाली वायु, मल, मूत्र, कृमि और वीर्य (शुक्र) भगंदर वाले रोगी को नष्ट कर देता है।
पाश्वात्य मत
गुदा क्षेत्र में जो नाड़ीव्रण होता है यानि की गुदज नाड़ीव्रण को फिस्टुला (भगंदर) (Fistula in ano, or- Ano rectal fistulae and sinuses) कहते है। मूल रूप से इसकी उत्पत्ति विद्रधियो से होती है। इसका तीन प्रकार दिखाए गए हैं।
1 पूर्ण गुदज नालव्रण (complete rectal fistula):
इस प्रकार में गुदा के अंदरूनी हिस्सा और व्रण के मुंह के साथ सबंध होता है इसलिए व्रण में से वायु और मल बाहर निकलता रहता है।
2 गुदज बाह्य नाड़ीव्रण (External recta sinus or blind external fistula) :
इस प्रकार के फिस्टुला (भगंदर) में गुदा और व्रण के बीच कोई आंतरिक संबंध नहीं होता है इसलिए इससे मल आदि का स्राव नहीं होता है।
3 गुदज अभ्यंतर नालव्रण (Internal rectal sinus or blind internal fistula):
इस प्रकार के फिस्टुला में, गुदा और व्रण का सबंध आतंरिक रीत से जुड़ा होता है, लेकिन त्वचा पर कोई छिद्र नहीं देखा जाता है। इस रोग में रोगी को कभी-कभी दर्द और सूजन भी होती है। लेकिन रोगी को इस बीमारी के बारे में कोई जानकारी नहीं रहती है। इस रोग का निदान रेक्टल जांच (गुदा परिक्षण) द्वारा किया जाता है।
भगंदर का साध्यासाध्य
सभी पांच प्रकार के फिस्टुला को भयंकर माना जाता है। बहुत मेहनत के बाद ही रोगी को भगवान की कृपा से ही ठीक किया जा सकता है और वो भी अगर रोगी का आयुष्य मजबूत हो।
त्रिदोष जन्य और सन्निपातज भगंदर को लाइलाज माना जाता है।
यदि भगंदर में से वायु, मल, मूत्र, वीर्य और कृमि या कीड़ों निकलते हो ऐसे रोगी के जीवन की कोई आशा नहीं रहती है।
भगंदर का उपचार
1
भगंदर के फोड़े का शल्य चिकित्सा द्वारा सर्वोत्तम तरीके से और सर्वोत्तम प्रयास से फोड़े पके ना इस तरह दूर करना चाहिए। और इस तरह रोग को जड़ से दूर करना चाहिए।
2
बरगद के पत्ते, मुलेठी, सौंठ, पुनर्नवा की जड़, और गिलोय इन सभी वस्तुओं को लें और इसे गर्म करके पेस्ट बना लें और इस पेस्ट को जितना सह सके उतना गर्म रखें, इस पेस्ट को भगंदर के फोड़ो जहा तक हो वहा तक (अंदर तक) लगाएं। इससे फिस्टुला स्पॉट (भगंदर की फ़ोल्लीया) खत्म हो जाती हैं।
3
दूध में तिल, निम् की छाल और महुआ (या मुलेठी) का बहुत ठंडा पेस्ट तैयार करें और इस पेस्ट को लगाने से पित्तज और दर्दनाक फिस्टुला (भगंदर) से छुटकारा मिलता है।
4
चमेली – जूही के पत्ते, बरगद के पत्ते, गिलोय, सौंठ और सेंधा नमक को गाढ़ी छाछ में पीस के पेस्ट तैयार कर लें. इस लेप को लगाने से फिस्टुला दूर हो जाता है।
निषाध तैल
5 निषाध तैल :
हल्दी, आंक का दूध, सेंधा नमक, कनेर के पत्ते, शुद्ध गूगल और इंद्रजौ को मिलाकर इसका कल्क तैयार करें। एक कड़ाही में तेल लें और इस कल्क को इसमें डालकर तेल को पकाएं (तेल सिद्ध करें)। इस तरह तैयार होने वाले तैल को निषाध तैल कहते है। यह निषाध तैल से मालिश करने से फिस्टुला (भगंदर) दूर हो जाता है।
नवकार्षिक गुग्गुल
6
1 3 तोला: त्रिफला
2 5 तोला: शुद्ध गुग्गुल
3 1 तोला: पीपली
उपरोक्त तीनों जड़ी-बूटियों को मिलाकर कूट ले और गोलियां बना लें। इस औषधीय गोली को नवकार्षिक गुग्गुल कहा जाता है। इस गोली के नियमित सेवन से फिस्टुला खत्म हो जाता है। साथ ही गुदा की सूजन और बवासीर भी दूर हो जाती है।
7
दारूहल्दी, हल्दी, मंजीठ, निम् के पत्ते, निशोथ, और मालकंगनी, ये सभी औषध इकठ्ठे करके इनका कल्क बनाले। इस कल्क से नालव्रण को धोने से नालव्रण (भगंदर) मिट जाता है।
8
कलौंजी जीरा और कुत्ते की हड्डी को गधे के खून में पत्थर पर कूट के इसका लेप बनाके यह लेप भगंदर पर लगाने से फिस्टुला मिट जाता है।
9
बिल्ली की हड्डियों को त्रिफला (हरड़े, बहेड़ा, आंवला) के रस में कूट के लेप बनाले और इसे भगंदर ऊपर लगाए, इससे भगंदर मिट जाता है।
10
बिल्ली और कुत्ते की हड्डियों की भस्म बना ले। इस भस्म को लोहे के बर्तन में गाय के घी में डाल कर अच्छी तरह मिळाले। यह लेप करने से फिस्टुला दूर हो जाता है। और अन्य दुष्टव्रण का भी नाश करता है।
रूपराज रस
11
शुद्ध पारा के 2 भाग और शुद्ध सोमल के 4 भाग लें, इसे गूंजा के रस में पांच दिनों तक गूँधना और फिर इसे ताम्बे के कटोरी में संपुट बनाले।
एक बर्तन में बारीक़ रेत भरके बिच में इस संपुट को रखें। और इस बर्तन को 8 प्रहर तक चूल्हे पर रख कर आग दें।
जब बर्तन अपने आप ठंडा पड़ जाए तब संपुट को बहार निकाल ले। और उसमें निहित औषध को मूषा (धातु पिघालने की कुठाली) में भर दें।
अब इस कुल्हि (मूषा) को आग पर रख दें और तब तक लगातार आग चलाते रहें जब तक कि अंदर रखी औषध चक्राकार गतिमान न हो जाए. (जब धातु पिघलती है तब वो मूषा में गोल गोल चक्राकार गति में गतिमान होती है)
फिर इसे आग से नीचे उतार कर ठंडा होने दें। ठंडा होने के बाद इसे खरल में अच्छी तरह पीस लें। इस तैयार औषध को रूपराज रस कहा जाता है।
इस रूपराज रस की 3 रत्ती ले और शहद में मिलाकर सेवन करने से और ऊपर से त्रिफला का कवाथ बनाकर अनुपान करने से और पथ्य में रहने से भयंकर भगंदर का दर्द कुछ ही दिनों में दूर हो जाता है।
रविसुंदर रस (रवितांडव रस)
1 भाग पारा और 2 भाग शुद्ध गंधक ले और मिलाएं और कज्जली बना ले।
घृतकुमारी के रस में पारा-गंधक की कज्जली को अच्छी तरह खरल में गोंद कर गोली बना लें।
इस गोली को तांबे के संपुट में रखें। फिर इस संपुट को एक बर्तन में राख भरकर इस के बीच रखे और 1 दिन के लिए आग पर रख दें।
जब बर्तन अपने आप ठंडा हो जाए तब इनमे से संपुट बहार निकाल लें।
संपुट में से गोली को बहार निकाल कर जंबीरी नामक खट्टा नींबू के रस की ७ भावना दे। और फिर इसे एक खरल में डालकर अच्छी तरह पीस लें और छान ले। इस तैयार दवा को रविसुंदर रस (रवितांडव रस) कहा जाता है।
रविसुंदर रस (रवितांडव रस) नाम की इस औषधि को १ रति ले और शहद में मिलाकर चाटने से फिस्टुला गायब हो जाएगा।
इस औषध को लेने के बाद ऊपर से मुसली या लहसुन खाएं और मीठा भी खाएं। फिस्टुला के रोगियों को त्रिफला का कवाथ और खेर का पानी बार-बार पीना चाहिए।
ऐसे रोगियों को दिन में सोना, मैथुन (सेक्स), बासी भोजन और ठंडे भोजन से परहेज करना चाहिए।
13
विडंग का गर्भ, त्रिफला और दो भाग पिपली लेकर इसका चूर्ण बना लें। इस चूर्ण को शहद और तेल में चाटने से भगंदर और नालव्रण ठीक हो जाता है। साथ ही कृमि, कुष्ठ, प्रमेह और क्षय रोग का नाश होता है।
विष्यंदन तैल
14
चीता, आक, निशोथ, कालीपाट, काला गूलर, सफ़ेद कनेर, थूहर, बच, कुलाहल, शुद्ध हरताल, बेकिंग सोडा, मालकंगनी, यह सभी को सामान भाग में लेकर कल्क बना ले।
एक लोहे की कड़ाही में तेल लें, उसमें तैयार कल्क डालें और तेल को आग पर पका लें (तैल को सिद्ध कर ले)। इस तेल को विष्यंदन तैल कहा जाता है।
यह तेल फिस्टुला को साफ करता है। घाव भरकर वर्ण में सुधार लाता है।
यदि विद्रधि दोनों तरफ से फूटती है, तो इसे पूर्ण नालव्रण कहा जाता है। यदि बाहरी भाग फटता है तो बाह्य विवर और यदि आंतरिक भाग फटता है तो आभ्यंतर विवर को उद्गम कहते हैं। पूर्ण नालव्रण में मल और वायु निकलना आम है। मूत्र और शुक्राणु (वीर्य) तभी निकलते हैं जब नालव्रण का सबंध मूत्रमार्ग और शुक्राणु मार्ग से जुड़ते हैं। महिलाओं में फिस्टुला ज्यादातर योनि और मलाशय के आरपार नाड़ीव्रण का निर्माण करते हैं।
15
हरडे, बहेड़ा, आंवला, सौंठ, काली मिर्च, पीपली इस सभी औषधि को बराबर मात्रा में लेकर इसका चूर्ण बना लें। इन सभी जड़ी बूटियों के बराबर मात्रा में गुग्गुल लेकर पीस लें और चूर्ण बनाके मिळाले।
इस तैयार चूर्ण को घी के साथ सेवन करने से नाड़ीव्रण दूर हो जाता है।
अगर फिस्टुला हो तो पहले खून को निकाल दें और फिर उस पर व्रण का इलाज करने से फिस्टुला मिट जाता है।
16
1 10 ग्राम सूखा आमला
2 10 ग्राम करंज के बीज
3 20 ग्राम फिटकरी
4 40 ग्राम काली/छोटी हरड़
फिटकरी को तवे पर गरम करें गर्म होने पर वह पिघल कर तवे पर पपड़ी बन जाएगी। जब यह ठंडी हो जाए तब पपड़ी उखाड़ ले और इसका कूट के चूर्ण तैयार कर लें।
एक छोटे तवे में, एक बड़े चम्मच देसी घी में काली/छोटी हरड़को अच्छी तरह से भूनें। ठंडा होने के बाद पाउडर को अच्छे से तैयार कर लें.
साथ ही सूखे आंवला और करंज के बीजों को भी अच्छी तरह पीस लें और चूर्ण बनाले। इन चारों चीजों का चूर्ण मिलाकर एक साफ कटोरे में रख लें।
1 10 ग्राम राई
2 10 ग्राम अजवाइन
4 10 ग्राम तेज पत्ता
5 30 ग्राम गंधक आवला सार (yellow sulphar)
ऊपर दी गई चार चीजें (राई, अजमो, तेजपत्ता और गंधक) लें और इसे बारीक पीसकर चूर्ण बनाके एक अलग साफ बर्तन में रख दें।
अब इन दोनों प्रकार के चूर्णों को आधा आधा चम्मच सादा पानी के साथ भोजन के आधे घंटे बाद सुबह और शाम दो बार लें।
1 गेंदे का फूल
2 गाय का मूत्र
3 हल्दी
गेंदे के फूल की पंखुड़ियां (पीली पंखुड़ियां) लें, इसमें 4 से 5 बूंद गोमूत्र और आधा चम्मच या आवश्यकता अनुसार हल्दी पाउडर मिलाएं और खरल में एक अच्छा मरहम बना लें।
इस मरहम को सुबह और शाम फिस्टुला घाव या नासूर घावों पर लगाएं। घाव के ठीक होने तक और पूरा घाव तक इस मरहम को लगाएं। इस मरहम का उपयोग करने से पहले घाव को अच्छी तरह से साफ कर लें।
इस मरहम को 7 से 15 दिन तक लगाने से भगंदर, नासूर का घाव धीरे-धीरे ठीक हो जाता है और यदि खून या मवाद निकल आता है तो वह भी धीरे-धीरे कम हो कर बंध हो जाता है और रोग दूर हो जाता है।
उपरोक्त दोनों चूर्ण नियमित रूप से लें और मरहम का नियमित रूप से प्रयोग करें। इस दवा का इस्तेमाल एक महीने से लेकर 3 महीने तक किया जा सकता है। लेकिन इसके परिणाम कुछ ही दिनों में दिखने लगते हैं। फिस्टुला को ठीक करने के लिए यह एक अच्छी दवा है।
इस औषध को पिने और लगाने के साथ साथ परहेज रखना भी बहुत जरुरी है। और परहेज करने से तेजी से बेहतर परिणाम मिलना शुरू होता हैं।
भगंदर के रोगियों का पथ्यापथ्य
व्यायाम, संभोग, कुश्ती, ऊंट और घुड़सवारी, पछतावे, नए खाद्य पदार्थ और भारी पदार्थो का सेवन – यह सब रोग के मिट जाने के बाद एक वर्ष से अधिक समय तक फिस्टुला रोगियों द्वारा नहीं किया जाना चाहिए।
तीखा, तला हुआ, बासी, किण्वित भोजन, मसालेदार भोजन, मांसाहारी भोजन और बाजारू बनीबनाइ तैयार वस्तुओं का सेवन रोगियों के लिए हानिकारक है। साथ ही प्रशीतित (फ्रिज में रखे) पदार्थ, शीतल पेय, मादक पेय आदि का सेवन रोगी के लिए बहुत हानिकारक होता है इसलिए इसे त्याग दे।