पथरी अश्मरी
पथरी (अश्मरी) चार प्रकार से होती हैं। वात, पित्त, कफ और वीर्य की पथरी (अश्मरी)। लेकिन वीर्य की पथरी को छोड़कर सभी प्रकार के पथरीके केंद्र में कफ होता है। वीर्य की पथरी का कारण भी वीर्य (शुक्र) ही होता है।
बस्ती में प्रवेश करने वाली वायु वीर्य सहित मूत्र को और पित्त सहित कफ को सुखा देती है। ये सूख जाने वाली धातुएं बढ़ कर पथरी (अश्मरी) में बदल जाती हैं।
पथरी बनने पर मूत्राशय फूल जाता है। मूत्राशय में और उसके आसपास बहुत दर्द होता है। बकरे की गंध वाले मूत्रकृच्छ तथा ज्वर तथा अरुचि उत्पन्न होते हैं।
नाभि में और नाभि के नीचे अत्यधिक दर्द होता है। मूत्रमार्ग बाधित हो जाता है और मूत्र बिचमे से फट कर दो भागों में बंट जाता है।
कभी-कभी पथरी एक तरफ हो जाने पर मूत्रवाहिनी से हल्का पीला पेशाब निकलता है। यदि पथरी हिलती है या अंदर घूमती है, तो यह मूत्रमार्ग को छील कर जख्म कर सकती है। और मूत्र विसर्जन के दौरान दर्द के साथ खूनी पेशाब निकल जाता है।
वायु की अश्मरी (पथरी)
वायु की अश्मरी (पथरी) बहुत दर्द पैदा करती है। कष्टदायी पीड़ा से दांत पीसना, कांपना, लिंग को दबाना या रगड़ना और नाभि में दबाना पड़ता है।
मल और मूत्र विसर्जन समय पर अधोवायु के साथ मल त्याग होता है, और मूत्र बूंद बूंद टपकता है। वायु से बनी पथरी कालीसी, रुक्ष और कांटेदार होती है।
वायु की अश्मरी (पथरी) का इलाज
वायु की अश्मरी (पथरी) के लक्षण दिख जाने पर तुरंत छुटकारा पाने के उपाय करें।
शुण्ठ्यादि कषाय
सौंठ, अरणी, पाशणभेद, सहजन, बर्ना, गोखरू, भद्रपर्णी और अमलतास, इन सभी को बराबर मात्रा में लेकर उसका कवाथ बना लें।
इस कवाथ में हींग, जवखार और सेंधा नमक डालकर सेवन करने से पथरी, मूत्रकृच्छ, पेड़ू में रह रहा वायु, और कमर, जांघ, गुदा और लिंग में रह रहा वायु दूर हो जाती है। दीपन और वमन भी बखूबी हो जाता है।
ऐलादी कवाथ
इलायची, काली मिर्च, मुलेठी, पाशणभेद, निर्गुण्डी के बीज, गोखरू, अड़ूसा और एरंडी को बराबर मात्रा में लेकर कवाथ बना लें।
इस कवाथ में अच्छी तरह से पका हुआ शिलाजीत और मिशरी मिलाकर सेवन करने से पथरी (अश्मरी) और मूत्रकृच्छ ठीक हो जाते है।
वरुणादि कवाथ
बर्ना की छाल, सौंठ, गोखरू, जवखार और गुड़ को बराबर मात्रा में लेकर कवाथ बनाकर पीने से पुरानी पथरी भी ठीक हो जाती है।
पाषाणभेद ध्रुत
निमकसांबर, समुद्री नमक, शतावरी, गोखरू, बड़ी कटेरी, बंगकटिया, ब्राह्मी, पीला पियाबांसा, कचनार, खस, पटेरक, तेन्दु, बर्ना, सगुन का फल, जौ, कुलथी दाल, बेर और निर्मली का फल, ये सभी औषधिया बराबर भागों में लें।
पाषाणभेद उपरोक्त सभी औषधियों से दुगुना वजन से लें।
इन सभी जड़ी बूटियों का कवाथ बना लें। और इसमें “उषाकादि गण” की औषधिया डालकर अच्छी तरह मिला लें।
गाय का घी लें और उसमें तैयार कवाथ को मिला लें और कवाथ के साथ घी को सिद्ध कर लें (घी को पका ले)।
इस तरह पका हुआ घी खाने से पथरी टूट जाती है।
विरर्तवादिगण
कठमूली, अरणी, काँस, दुर्वा, गन्ने की जड़, नीलकमल, सूर्यमुखी, गोखरू, अड़ूसा, निमकसांबर, निमक, पीला पियाबांसा, पाषाणभेद, पटेरक, बरू और झिण्टी, ये सभी विरर्तवादिगण कहलाते हैं।
इन जड़ी बूटियों के साथ दूध, पेय, राबड़ी, क्षारो और कवाथ को उबालकर रोगी को पिलाने से पथरी, मूत्रकृच्छ और वायु के रोग दूर हो जाते हैं।
पित्त की पथरी (अश्मरी)
पित्त की पथरी (अश्मरी) , भिलावा के बीज जैसी लाल, पिली, या सफेद होती है। पित्त की पथरी मूत्राशय में अग्नि जैसी जलन का कारण बनती है।
पित्त की पथरी का उपचार
कुशाध ध्रुत
दूर्वा, काँस, पथिरा, पटेरक, ऊँट कंटेली, गन्ने की जड़, पाषाणभेद, विदारीकंद, वराहीकंद, लाल धान की जड़, गोखरू, तेन्दु, कांटीकरंज, कालीपाट, पतंग, झिण्टी, पुनर्नवा और सिरस इन सभी जड़ी-बूटियों को बराबर मात्रा में लेंकर इसका कवाथ बना ले ।
इस कवाथ में घी सिद्ध करले और इस सिद्ध घी में शिलाजीत, मुलेठी, नीलकमल के बीज, ककड़ी के बीज और त्रपुस के बीज का चूर्ण डालकर उस घी का सेवन करने से पित्त की पथरी दूर हो जाती है।
क्षारे, राबड़ी, पेया, कवाथ तथा इस तैयार घी में पका हुआ दूध और भोजन करने से पित्त की पथरी ठीक हो जाती है।
कफ की पथरी(अश्मरी)
कफ की पथरी चिकनी, बडी, शहद जैसे रंग वाली या सफेद होती हैं। कफ की पथरी पेट में सुई चुभती हो ऐसा दर्द का कारण बनती है।
कफ की पथरी के कारण मूत्राशय भारी और ठंडा महसूस करता है। ये पथरी ज्यादातर बच्चों में होती है।
कफ की पथरी (अश्मरी) का इलाज
कुशाध ध्रुत
बर्ना, झिण्टी, सहजन, दुहरी अरणी, करंज, गन्ने की जड़, बेल, कुंदरू, निमकसांबर, चीता, पीला पियाबांसा, नमक, शहद, मरोड़फली, शतावरी, दुर्वा, बड़ी कटेरी, बंगकटिया, गुगुल, इलायची, रेणुका बिज, कट, चंदन, काली मिर्च, चीता और देवदार इन सभी जड़ी बूटियों को बराबर मात्रा में लेकर कवाथ बना लें।
इस तैयार कवाथ को बकरी के दूध से बने घी में मिलाकर घी को सिद्ध करलें। और इस तैयार घी को रोगी को सेवन कराने से पथरी (अश्मरी) नष्ट हो जाती है।
वीर्य की अश्मरी (पथरी)
स्थानभ्रष्ट हुए वीर्य का अवरोध के कारण वीर्य की पथरी पैदा हो जाती है। यह पथरी (अश्मरी) बढ़ी अवस्था (प्रौढ़ावस्था) के दौरान होता है।
मैथुन (संभोग) के वेग को रोकना या संभोग (मैथुन) बीच में रोक देने से वीर्य बाहर नहीं निकलता और ये स्थानभ्रष्ट होता है। यह वीर्य लिंग और वृषण के बीच फंस जाता है जिन्हे वायु सूखा देते है। इसकी पथरी बन जाती हैं।
वीर्य की पथरी (अश्मरी) के लक्षण
वीर्य पथरी के जमा होने से पेडू में दर्द, मूत्रकृच्छ और अंडकोष में सूजन हो जाती है।
इस पथरी को इसके आकार के अनुसार अलग-अलग नामों से जाना जाता है। जो पथरी वीर्य से बनती है उसे स्थितिभेद से बजरी कहते हैं। जब वीर्य की पथरी वायु से चूर चूर हो जाती है तब उसे बजरी कहते हैं।
जो पथरी (अश्मरी) बड़े दानों की तरह होती हैं उन्हें बजरी कहते हैं और जो पथरी (अश्मरी) छोटे दानों की तरह होते हैं उन्हें बालू कहते हैं। पथरी वायु से चूर चूर होकर बजरी बन मूत्रमार्ग में आने के बाद वायु उलट होने से फंस जाती है, तो इसे रेत का उपद्रव कहा जाता है।
बजरी और रेत से दुर्बलता, ग्लानि, कृष्यता, पेट के रोग, अरुचि, पांडु रोग, मूत्रकृच्छ, प्यास, हृदय-दर्द तथा उल्टी आदि रोग के उपद्रव होते हैं।
पथरी, बजरी या बालू वाले रोगी की नाभि और अंडकोष में सूजन हो, पेशाब बंद हो जाए और बहुत दर्द हो तो रोगी की तुरंत मृत्यु हो जाती है।
वीर्य की पथरी (अश्मरी) का उपचार
कद्दू के रस में जवाखारऔर गुड़ मिलाकर पीने से मूत्रकृच्छ, वीर्य की पथरी और बजरी नष्ट होती है।
तिल, अघाड़ा, केला, पलाश, जौ और बेल बराबर मात्रा में लेकर कवाथ बनाके बकरा के पेशाब में मिलाकर पीने से बजरी और वीर्य की पथरी नष्ट हो जाती है।
सुपारी, अकोल, निर्मली का फल, सागौन का फल और नीलकमल का फल लेकर इसका कवाथ बनाले और इसमें गुड़ मिलाकर पीने से बजरी नीचे गिर जाती है।
पाषाणभेद, गोखरू, एरंडी, बड़ी कटेरी, बंगकटिया और भानकरी की जड़ को दूध में पीसकर दंही के साथ पीने से पथरी और बजरी कट जाती है।
हल्दी और गुड़ तुषोदक के साथ पीने से लिंग की बजरी चाहे कितनी ही पुरानी क्यों न हो नष्ट हो जाती है।
तुषोदक = कांजी = भूसी सहित जौ के आटे से बनी दाल। (बीमार लोगों के लिए पानी में उबाले हुए सुपाच्य अनाज के आटे का काढ़ा)
इन्द्रजौ का कल्क को दही में डालकर पीनेसे और परहेज में रहने से लिंग की पथरी (बजरी) गिर जाती है।
ककड़ी के बीज या नारियल के फूल को दूध में कूट-पीसकर पीने से पथरी और बजरी का रोगी कुछ ही दिनों में प्रसन्न हो जाता है।
गोखरू, बर्ना और सौंठ का कवाथ शहद में मिलाकर पीने से पथरी, बजरी, शूल और मुत्रकृच्छ ठीक हो जाता है।
कद्दू के रस में हींग और जवाखार मिलाकर पीने से मूत्राशय, शिश्नशूल, पथरी और मुत्रकृच्छ ठीक होता है।
पुनर्नवा, लोहभस्म, हल्दी, गोखरू, ढोली दूधी, प्रवालभस्म और बोल को बराबर मात्रा में लें। फिर इसे आम के रस, शहद और गन्ने के रस में कूट-पीसकर पीने से वीर्य की पथरी और बजरी ठीक हो जाती है।
बर्ना की अंदरूनी छाल, पाषाणभेद, सौंठ और गोखरू सभी को बराबर भाग में लेकर कवाथ बना लें। इस कवाथ में जवाखार डालकर पीने से बजरी (पथरी) कट जाती है।
तृणपंचमूलाधधृत
40 तोले “तृणपंचमूल” और 40 तोले गोखरू दोनों लेकर 1024 तोले पानी में इसका कवाथ बना लें।
गुड़ और गोखरू का कल्क बना लें और इस कल्क को कवाथ में डालकर मिला दें।
64 तोला घी लेकर उसमें कवाथ और कल्क का मिश्रण मिलाकर घी को सिद्ध कर लें।
यह सिद्ध घी भोजन, स्नेह में प्रयोग करने से मूत्राशय की रुकावट, पथरी और बजरी ठीक हो जाती है।
वरुणतैल
बर्ना का पंचांग और गोखरू का पंचांग समान मात्रा में लेकर उसका कवाथ बनाएं। इस कवाथ से सिद्ध किआ गया तेल से निरुहबस्ति (एनिमा) देने से पथरी, बजरी, शूल और मूत्रकृच्छ ठीक हो जाते हैं।
कुषाधतैल
दुर्वा, अरणी, भानकरी, डाभ, बरू, गन्ना, गोखरू, ब्राह्मी, निमकसांबर, शतावरी, पथिरा, धातकी, अड़ूसा, नीलबदरी, अशोक और पाषाणभेद को बराबर भागों में लेकर कवाथ और कल्क बना ले।
इन जड़ी-बूटियों से बने कवाथ और कल्क से तेल सिद्ध करें। इस तेल को कुषाध तैल कहा जाता है।
इस तेल से अभ्यंग बस्ती, उत्तरबस्ती देने और इस तेल को पीने में उपयोग करने से बजरी, पथरी, मूत्रकृच्छ, प्रदर, योनि शूल और वीर्य के दोष दूर हो जाते है। यह तेल से बांझ स्त्री गर्भ धारण करने में सक्षम बनती है।
सभी प्रकार की पथरी (अश्मरी) के सामान्य उपचार
सौंठ, बर्ना, गोखरू, पाषाणभेद और ब्राह्मी को बराबर भाग लेकर इसका कवाथ बना लें। इस कवाथ में गुड़ और जवाखार डालकर पीने से तीव्र पथरी भी ठीक हो जाती है।
गोखरू के बीजों का चूर्ण को शहद में मिलाकर बकरी के दूध के साथ सात दिन तक पीने से पथरी मिटती है।
बर्ना की जड़ का कवाथ बनाए और उसी बर्ना की जड़ का कल्क बनाकर दोनों मिलाकर पीने से पथरी नष्ट होती है।
सहजन की जड़ का कवाथ बनाकर हल्का गर्म हो तब पीने से पथरी ठीक हो जाती है।
अदरक, जवाखार, हरड़ और दारूहल्दी सामान मात्रा में लेकर चूर्ण बनाले। इस चूर्ण को दही के घिसाव (दही में से लिकला पानी) के साथ पीने से वो खतरनाक पथरी को काट कर नष्ट करता है।
पाषाणभेद, बर्ना, गोखरू और ब्राह्मी को बराबर भागों में लेकर उसका कवाथ बना लें। इस कवाथ में शिलाजीत, गुड़, ककड़ी के बीज और त्रपुस के बीज मिलाकर सेवन करने से अटूट पथरी टूटकर निकल जाती है।
भद्रपर्णी के बीजों को पानी रहित गाढ़े छाछ में पीसकर सेवन करने से या सागौन के फल खाने से पथरी ठीक हो जाती है।
गोखरू, एरंड के बीज, सौंठ और बर्ना की छाल का कवाथ सुबह के समय नियमित रूप से खाली पेट सेवन करने से पथरी नष्ट हो जाती है।
पथरी के कारण पेशाब में खून आ रहा हो तो सूखे कमल की नाल (डंडी), तद्म ताल, काँस, भानकरी, गन्ना और दर्भ को पानी कूट पीस कर शहद और शक्कर मिलाकर पीएं और विदारीकंद, गन्ना और खीरा खाएं।
32 तोले बर्ना की छाल की भस्म, 16 तोले जवाखार और 8 तोले गुड़ को लेकर अच्छी तरह मिला लें। इस मिश्रणमें से एक तोला भरकर सेवन करने और ऊपर से गर्म पानी पीने से मूत्रकृच्छ और पथरी नष्ट होती है।
वरुणाध चूर्ण
बर्ना की भस्म को पानी में डालकर अच्छी तरह मिला लें। फिर इस पानी को साफ कपड़े से छान लें।
इस पानी में जवाखार डालकर खूब उबालें और जब सारा पानी जल जाए और सिर्फ चूर्ण ही बाकि रह जाए तब इसे बाहर निकाल लें।
इस तैयार चूर्ण में गुड़ मिलाकर सेवन करने से भयंकर बड़ी पथरी, तिल्ली, भारी आफुल्लन, पेट दर्द, कब्ज, मूत्र रोग, मूत्रकृच्छ और पत्थर जैसी मजबूत पथरी भी नष्ट हो जाती है।
वरुणकगुड
400 तोले बर्ना ले (कीड़ों द्वारा खाए गए न हो, ताजे, स्निग्ध और पवित्र स्थान पर उगाए गए और एक शुभ दिन और शुभ समय में काटे गए हो ऐसा) लें।
1600 तोला जल लेकर उसका कवाथ बना लें।
जब एक चौथाई पानी रह जाए तो उसमें शेष भार के बराबर गुड़ डालकर एक मजबूत बर्तन में पाक बना लें।
जब गुड़ पककर गाढ़ा हो जाए तो इसमें सौंठ, ककड़ी के बीज, गोखरू, काली मिर्च, पाषाणभेद, पद्मकाष्ठ (पदम्), कद्दू के बीज, त्रपुस के बीज, बहेड़ा के बीज, मनशील, बथुवा, सहजन, अंगूर, इलायची, शिलाजीत, हरड़ और विडंग ये सब जड़ी बूटियों 4 – 4 तोला लेकर पिस कर चूर्ण करके डालें और अच्छी तरह मिलाएँ। इस औषधि का नाम “वरुणक गुड” है।
इस वरुणक गुड का नियमित और उचित अनुपात में सेवन करने से सभी प्रकार के दोषों के कारण होने वाली पथरी तुरंत गिर जाती है।
कुलत्थाध ध्रुत
बर्ना का कवाथ बनाएं और उसमें कुलथी दाल, सेंधा नमक, चावल, विडंग, शक्कर, पद्मकाष्ट (पदम्), जवाखार, कद्दू के बीज और गोखरू के बीज का कल्क बनाके मिलाए।
इस मिश्रण से घी को सिद्ध कर लें। इस औषधि का नाम “कुलत्थाध धृत” है।
यह कुलत्थाध धृत सभी प्रकारकी कष्टसाध्य पथरी, मूत्रकृच्छ, मूत्रघात और सभी प्रकार के मूत्र रोगों को जड़ से नष्ट करती है।
शरादिपंचमूलाध ध्रुत
पथिरा आदि पंचमूल का कवाथ बना लें। और गोखरू का कल्क बना लें।
इस कवाथ और कल्क को 64 तोले घी में डालकर घी को सिद्ध कर लीजिए. इस औषधि का नाम “शरादिपंचमूलाध ध्रुत” है।
इस औषधि का सेवन करने से पथरी, मूत्रकृच्छ और वीर्य मार्ग के सभी रोग ठीक हो जाते हैं।
वरुणाध धृत
400 तोला बर्ना को कूट कर 1024 तोले पानी में कवाथ बना लें। जब पानी की मात्रा चौथाई रह जाए तो इसे उतारकर कपड़े से छान लें।
इन सभी जड़ी-बूटियों, बर्ना, कदली, बेल, “तृणपंचमूल”, गिलोय, पाषाणभेद, ककड़ी के बीज, बच (सफ़ेद), तिल का क्षार, पलाश का क्षार और जूही की जड़ का एक – एक तोला कल्क बनाएं।
64 तोला घी लेकर उसमें तैयार किए गए कवाथ और कल्क मिलाकर घी को सिद्ध कर लें। इस औषधि का नाम “वरुणाध ध्रुत” है।
इस औषधि को देशकालानुसार सेवन करें और पचने के बाद पुराना गुड़ और दही का पानी पियें। इससे पथरी, बजरी और मूत्रकृच्छ नष्ट हो जाता है।
विरर्तवाध तैल
कठमूली, पाषाणभेद, अरणी, श्योनाक, कांटीकरंज, बन्दा, व्याघ्रनखी, एरंडी, तेन्दु, खस, पद्माकाष्ट (पदम्), दुर्वा की जड़, काँस की जड़, पथिरा की जड़, गोकर्णी की जड़, गन्ने की जड़, भानकरी की जड़, शतावरी, गोखरू, ऊँट कंटेली, अशोक, ब्राह्मी, भद्रपर्णी और भद्रपर्णी की जड़ इस सभी औषधिया समान मात्रा में ले।
सभी जड़ी बूटियों का उपयोग करके कवाथ और कल्क बनाएं। इस कवाथ और कल्क से तेल सिद्ध करें इस तेल को “विरर्तवाध तैल” कहा जाता है।
इस कवाथ और कल्क से किया हुआ सिद्ध तेल की वस्ति (एनिमा) देने से वायु और पित्त के विकारों शांत होता है, पथरी, बजरी, शूल और मूत्रकृच्छ को ठीक करता है।
पुनर्नवाध तैल
पुनर्नवा, गिलोय, शतावरी, जवाखार, तीन प्रकारके नमक (सेंधा नमक,काला नमक, समुंद्री नमक), कर्चुर, कट, बच, नागरमोथा, रास्ना, कायफल, पोहकर मूल, अजवाइन, कपूर कचरी, हींग, सोआ, विडंग, अतिविषा, मुलेठी और पंचकोल, इन प्रत्येक औषधि के एक-एक तोला की मात्रा में कल्क बना ले।
64 तोले तेल, 128 तोले गोमूत्र और 128 तोले कांजी लें। (कांजी = दलिया = बीमारों के लिए पानी में उबाला हुआ सुपाच्य अनाज के आटे का काढ़ा।)
तेल में सभी जड़ी-बूटियाँ का बनाया हुआ कल्क, गोमूत्र और कांजी मिलाकर तेल सिद्ध (तेल पकाकर तैयार) कर लें। इस तेल को पुनर्नवाध तैल कहा जाता है।
इस तेल का सेवन करने से, इसकी पिचकारी लेने से पथरी, बजरी, शूल, मूत्र कृच्छा, कफ, गैस, आमशूल और बहि:सरण (हर्निया) का नाश हो जाता है।