फिरंग रोग
यह बीमारी कभी फिरंग नामक देश में प्रचलित थी। फिरंग रोगग्रस्त लोग अन्य देशों का दौरा करने या किसी भी कारण से घूमने जाया करते थे।
यह रोग अन्य देशों के स्थानीय लोगों में फैल गया क्योंकि ये आगंतुक स्थानीय लोगों के साथ शारीरिक संपर्क में लगे और संक्रमित हो गए।
इस प्रकार फिरंग देश से फैली इस बीमारी को फिरंग रोग के नाम से जाना गया। यह रोग कुछ हद तक एड्स से जुड़कर देखे जाते है।
ज्यादातर यह रोग पुरुषों और महिलाओं में संभोग के माध्यम से फैलता है। इसलिए यह बीमारी दूसरे देशों के लोगों में संक्रमण के कारण फैल गई क्योकि जो उस फिरगी बीमारी से ग्रस्त थे और उनके संपर्क में अन्य देशो के लोग आकर संक्रमित हो गए, इसलिए इस बीमारी को आगंतुक कहा जाता है।
क्योंकि इस रोग से ग्रस्त होने के बाद दोषों का आपस में संबंध स्थापित होता है। इसलिए श्रेष्ठ चिकित्सक को चाहिए कि वह दोष के लक्षण को पहचान कर उसका उपचार करे।
फिरंग रोग के प्रकार
फिरंग रोग तीन प्रकार का होता है।
1 बाह्य फिरंग रोग
2 आभ्यंतर फिरंग रोग
3 बाह्याभ्यंतर फिरंग रोग
बाह्य फिरंग रोग
बाह्य फिरंग रोग विस्फोटक (फोड़ा) जैसाऔर थोड़ा दर्दनाक है। रोग व्रण (अल्सर) के रूप में विकसित होता है। इस प्रकार के बाह्य फिरंग रोग को चिकित्सकों द्वारा इलाज साध्य (ठीक हो जाने वाला) माना जाता है।
आभ्यंतर फिरंग रोग
आभ्यंतर (आंतरिक) फिरंग रोग जोड़ों होता है साथ-साथ वहा सूजन भी होता है। इस रोग में आमवात (गठिया) जैसा दर्द होता है। इस प्रकार के आंतरिक फिरंग रोग को कठिन (कष्ट साध्य) माना जाता है।
बाह्याभ्यंतर फिरंग रोग
बाह्याभ्यंतर फिरंग रोग में आगे दिखाए गए दोनों, बाह्य फिरंग रोग और आंतरिक फिरंग रोग दोनों के लक्षण होते हैं। इस रोग को लाइलाज माना जाता है।
फिरंग रोग के उपद्रव
फिरंग रोग के रोगी अपना शरीर और शक्ति खो देते हैं जिससे उनका शरीर कमजोर होने लगता है। इस रोग से जठराग्नि मंद हो जाता है, इसलिए भोजन पचता नहीं है और अरुचि पैदा होती है।
यह बीमारी इतनी भयावह है कि यह हड्डियों को भी क्षीण कर देती है। हड्डियों के अवशोषित होने पर रोगी का शरीर झुक जाता है।
फिरंग रोग की साध्यसाध्याता
जो व्यक्ति जिसे इस बीमारी नई बनी हुई है और उसे कोई भी उपद्रव नहीं है, वह फिरंग रोग साध्य है।
आभ्यंतर फिरंग रोग पीड़ा कारक होने से इस को (कठिन) कष्ट साध्य माना जाता है क्योंकि इसे बहुत प्रयास से समाप्त किया जा सकता है।
बाह्याभ्यंतर फिरंग रोग सभी उपद्रवों के साथ जो व्यक्ति को हुआ हो और इसकी पीड़ा शरीर में व्याप्त हो तब इस दुर्बल व्यक्ति को ये रोग असाध्य (लाइलाज) है।
फिरंग रोग का उपचार
फिरंगरोग रसकपुर से अवश्य मिट जाता है।
रसकपुर खाने की विधि
गेहूँ के आटे में पानी डालिये, आटे को गूंद कर छोटी-छोटी पूड़ी बना लीजिये. इस पूड़ी के बीच में चार रति रसकपुर रखिये और पूड़ी को गोल करके बन्द कर दीजिये.
इस रसकपुर वाली गेहूं की पूड़ी की एक गोली बना लें और इसे लौंग के पाउडर में रगड़ लें।
गोली को पानी के साथ इस प्रकार निगलें कि वह दांतों को न छुए और ऊपर से नागरवेल का पत्ता चबा के गले से उतार ले (चबा कर खा ले)।
रसकपुर मुँह में छूने से मुँह में सूजन आ जाती है और दांतों को भी नुकसान पहुंचता है। इसलिए रसकपुर का सेवन सावधानी से करना चाहिए।
रसकपुर खाने वाले को हर तरह की सब्जी, नमकीन, खट्टी आदि का सेवन नहीं करना चाहिए। काम न करें और धूप में बाहर न निकलें। यात्रा नहीं करनी चाहिए और मैथुन (सेक्स) का त्याग करना चाहिए।
सप्तशालि बाटी
पा तोलो शुद्ध पारा, पा तोलो कत्था, आधा तोलो अकरकरा और पोनो तोलो शहद ये सभी औषधिया लेके इसे अच्छी तरह से पिस ले।
अच्छी तरह से पीसने के बाद इसकी 7 (सात) एक सामान गोली बना लो। इस गोली को सप्तशालि बाटी (वटी) कहते हैं।
एक गोली नियमित रूप से सुबह एक बार पानी के साथ लेने से फिरंग रोग ठीक हो जाता है।
सप्तशालि बाटी (वटी) लेने वाले रोगी को नमकीन और खट्टा नहीं खाना चाहिए।
धुम्रपान
शुद्ध पारा, शुद्ध गंधक और चावल 1-1 तोला लेकर कज्जली बना लें। इसकी सात समान गोलियां बना लें और सात दिनों तक इसका धूम्र को पीनेसे फिरंग रोग ठीक हो जाता है।
शुद्ध पारा
पा तोला शुद्ध पारा लें, इसे पीले फूल वाले राजबला के पौधे की पत्तियों के रस में मिलाकर हाथ की हथेलीयो में मलें। हथेलियों को रगड़नेसे जब पारा अद्रश्य हो जाए तब दोनों हाथों को आग में सेंक लें।
इस प्रकार यह प्रयोग सात दिनों तक करने से और खट्टे और नमकीन पदार्थों का सेवन छोड़ने से फिरंग रोग समाप्त हो जाता है।
चूर्ण
पहले नीम के पत्ते का चूर्ण 80 ग्राम लें। 10 ग्राम हरड का पाउडर और 10 ग्राम आंवला का पाउडर और 5 ग्राम हल्दी का पाउडर लें और अच्छी तरह मिला लें।
इन चूर्ण में से 5 ग्राम चूर्ण को नियमित रूप से पानी के साथ सेवन करने से फिरंग रोग ठीक हो जाता है।
चूर्ण
चोबचीनी का चूर्ण एक चम्मच शहद में मिलाकर चाटने से फिरंग रोग नष्ट हो जाता है। इस चूर्ण का सेवन करते समय नमक का सेवन नहीं करना चाहिए।
अगर बिना नमक के काम न चले तो सेंधव नमक लें क्योंकि सेंधव स्वादिष्ट होने के साथ-साथ बहुत फायदेमंद भी होता है।
अवलेह
शुद्ध पारा, शुद्ध गंधक और कत्था १ – १ तोला लेकर इसकी कज्जली बना लें।
हल्दी, नागकेसर (नागेसर), छोटी इलायची, बड़ी इलायची, जीरा, काला जीरा, अजवाइन, चंदन, रक्तचंदन, पीपली, बांसलोचन, जटामांसी और तेज पत्ता ये सभी औषधिया आधा आधा तोला लेकर इसका चूर्ण बनाले और आगे बनाई हुई कज्जली में मिला ले।
यह तैयार किआ हुआ मिश्रण को 8 (आठ) तोले घी में अच्छी तरह से गूंद लें. और इस औषध को एक अच्छे साफ पात्र में भरकर रख लें।
इस औषध में से आधा तोला लेंकर इसका सेवन करे। इसके नियमित सेवन से फिरंग रोग में बना व्रण (अल्सर) अवश्य समाप्त हो जाता है।
यदि लंबे समय तक का पुराना और भिन्न प्रकार का व्रण हो तो भी इस औषध के प्रयोग से वह भी गायब हो जाता है। इस औषध से मुंह में सूजन नहीं होती है।
21 (इक्कीस) दिनों तक नियमित रूप से इस औषध का प्रयोग करें। और इन दिनों में नमक बिलकुल छोड़ देना।
लिंग के मस्से
पुरुषों में यह रोग लिंग के ऊपर होता है। लिंग पर एक से अधिक छोटे-छोटे अंकुर पैदा होते हैं जो इक दूसरे के ऊपर होते हैं।
मुर्गे के शिर के ऊपर जो कलगी होती है इस के समान, पंख के पिच्छू जैसा पिच्छू वाला और कोमल ये अंकुर लिंग के उपर, जोड़ों में या लिंग के शीर्ष पर होता हैं। इसे लिंग के मस्से (लिंगार्ष) कहा जाता है।
यदि इस मस्से में बहुत अधिक दर्द हो और वह त्रिदोष के कारण पैदा हुआ हो, तो ऐसा लिंगार्ष असाध्य होने से मिटता नहीं हैं।
लिंगार्ष के उपचार
लिंग के ऊपर हुए मस्सों को सर्जिकल रूप से हटाना और बाद क्षार क्रिया से जलाना फिर इसके ऊपर व्रण का उपचार जो है इसके समान लेप, चूर्ण इत्यादिक का उपचार करना।
चूर्ण
खाने का सोडा, नीला थोथा, शिलाजीत, रसकपूर, सुरमा, मनशील और हरताल ये सभी जड़ी-बूटियां बराबर-बराबर मात्रा में लेकर इसका चूर्ण बना ले। इस चूर्ण का सेवन करने से लिंग का मस्सा (लिंगार्ष) का नाश होता है।
घृतकुमारी
घृतकुमारी को छील के बांधने से लिंगार्ष खत्म हो जाता है।
लेप
बड़ी कटेरी की जड़ों को लाकर इसे बैल के मूत्र में कूट कर लेप बनाले। इस लेप लिंग के मस्सो के ऊपर लगाने से लिंगार्ष तुरंत दूर हो जाता है।