अंडकोष वृद्धि
अंडकोष वृद्धि सात प्रकार से होती है।
1 वात,
2 पित्त,
3 कफ,
4 रक्त,
5 मेद,
6 मूत्र और
7 आंतें की अंडकोष वृद्धि
यद्यपि मूत्र और आंतों की अंडकोष वृद्धि वायु के कारण होती है, फिर भी इसे उद्देश्य भेद से भिन्न माना जाता है।
जब वायु कुपित होती है तब वह वृषण की शिराओ को अवरुद्ध करके वृषण की गोली और त्वचा में वृद्धि और सूजन पैदा करती है और इसमें दर्द होता है।
वायु की एंड वृद्धि
वायु की अंडाषय वृद्धि वायु से भरी धौंकनी के स्पर्श के समान है, वे रुक्ष और अंडकोष को जरा सा स्पर्श करने से दर्द होता है वैसी होती है।
पित्त की एंड वृद्धि
पित्त से हुई अंडकोष वृद्धि पके हुए गूलर के फल के समान होती है, जो पित्त से जलन पैदा करने वाली और छूने पर गर्म महसूस होती है ऐसी होती है।
कफ की एंड वृद्धि
कफ से होने वाली अंडकोष की वृद्धि शीतल, भारी, स्निग्ध, खुजलीदार, कठोर और थोड़ी दर्दनाक होती है।
रक्त की एंड वृद्धि
रक्त से होने वाली अंडकोष वृद्धि काले रंग जैसी, फुन्सीया से घिरे होती हैं और इसका लक्षण पित्त की अंडकोष वृद्धि समान होते हैं।
मेद की एंड वृद्धि
मेद से हुई अंडकोष वृद्धि कफ से हुई वृद्धि के सामान लक्षणों वाली होती है, लेकिन यह नरम, कोमल, ताड़ के फल जैसी और गोल होती है।
मूत्र की एंड वृद्धि
मूत्र की अंडकोष वृद्धि मूत्र का अवरोध के कारण होती है। वृषण में सूजन और वृद्धि होने कारन गोलियां निचे की ओर लटकी हुई होने से चलते समय इसमें दर्द होता है। मूत्र विसर्जन करते वक्त इसमें बहुत दर्द महसूस होता है।
आंतें की वृद्धि (अंत्रवृद्धि)
वायु कुपित हो ऐसा आहार का सेवन करने से, ठंडे पानी से नहाने से, सिर पर भार उठाने से, अत्यधिक चलने से, अंगों की विषम प्रवृत्ति से, क्षोभ से, इत्यादि कारणों से वायु कुपित होकर आंतो में आकर आंतों को दूषित करती है।
यह वायु छोटी आंत को अपने स्थान से नीचे कर देती है। जिससे वृषण जोड़ में गांठ जैसा बन जाता है। इसे हर्निया या अंत्रवृद्धि कहा जाता है।
इस प्रकार की आंत्रवृद्धि को हाथ से दबाने से आवाज करती है और अंदर की ओर हो जाती है। दबाव हटाने से वह पुनः बाहर आ जाती है।
यदि समय पर आंत्र वृद्धि का ठीक से इलाज नहीं किया जाता है, तो अधोवायु, बढ़े हुए वृषण में दर्द और अंगों में जकड़न जैसी समस्याएं हो सकती हैं।
वायु का संचय होने के कारण अंडकोष का सबंध आंतों के साथ हो गए होते है और इस वृद्धि के लक्षण वायु की अंडकोष वृद्धि के समान हों, तो यह लाइलाज हो जाता है।
गिलटी का निदान और लक्षण
अत्यधिक जुकाम करने वाला और बहुत भारी भोजन का सेवन करने से, सूखा, सड़ा हुआ और बदबूदार मांस खाने से, अति कुपित दोषो जंघा के जोड़ों में गांठ पैदा करता हैं।
इस गांठ को गिलटी कहा जाता है। यह गिलटी के कारण बुखार, शूल,और ग्लानि बहुत होती है।
अंडकोष वृद्धि का उपचार
वात की अंडकोष वृद्धि का उपचार
ये मत करिए
अंडकोष वृद्धि के रोगियों को अधिक भोजन, भारी भोजन, अत्यधिक चलना, उपवास, मल-मूत्र के वेग को रोकना, घोड़े की सवारी करना, कड़ी मेहनत करना, मैथुन (सेक्स ) करना इत्यादि कार्यो नहीं करना चाहिए।
विरेचन
स्निग्ध विरेचन करने से वायु की वृद्धि अटक जाती है।
अरंडी का तेल
अरंडी के तेल को दूध में मिलाकर एक महीने तक पीने से वायु की अंडकोष वृद्धि दूर हो जाती है।
गौमूत्र में गुगुल और अरंडी का तेल मिला के पीने से लंबे समय तक की अंडकोष वृद्धि हो तो भी वह मिट जाती है।
पित्त की अंडकोष वृद्धि का उपचार
लेप (मरहम)
रक्तचंदन, मुलेठी, कमल, खस और नीलकमल को दूध में पीस के इसका लेप करने से पित्त की अंडकोष वृद्धि, सूजन और जलन दूर हो जाती है।
कफ की अंडकोष वृद्धि का उपचार
कवाथ (काढ़ा)
त्रिफला और त्रिकटु का कवाथ (काढ़ा) बनाकर उसमें जवाखार और सेंधा नमक मिलाकर पीने से विरेचन होता है जिससे कफ की अंडकोष वृद्धि दूर हो जाती है।
मसालेदार, तेज और गर्म लेप (मरहम) का उपयोग करना। रोगग्रस्त भाग पर पसीना आए ऐसी गर्म पट्टी के प्रयोग से कफ की अंडकोष वृद्धि समाप्त हो जाती है।
रक्त की अंडकोष वृद्धि का उपचार
रक्त की अंडकोष वृद्धि मिटाने के लिए बार-बार जोंक के द्वारा रक्त को निकाले। मिश्री और शहद मिश्रित विरेचन का उपयोग करे।
मेद की अंडकोष वृद्धि का उपचार
मेद की अंडकोष वृद्धि पर सेंकना और फिर इस पर सुरसादिगण जड़ी बूटियों का लेप (मरहम) लगाएं।
आंतें की वृद्धि (अंत्रवृद्धि)
यदि आंतों की वृद्धि स्रावित नहीं होती है, तो सेवनी की बगल में निचले हिस्से मे व्रीहिमुख नामक शस्त्र से (बुद्धिमान वैद्य) छेदें और फिर वायु की अंडकोष वृद्धि जैसी चिकित्सा करनी चाहिए।
आंतें की वृद्धि (अंत्रवृद्धि) पर आग के माध्यम से सेंकना इससे लाभ होता है।
बलाबीज का कल्क बनाकर उस कल्क से एरंड का तैल सिद्ध कर लेना। इस अरंडी के तेल को सही मात्रा में पीने से अधोवायु को पैदा करने वाली और शूल पैदा करने वाली आंतें की वृद्धि (अंत्रवृद्धि) समाप्त हो जाती है।
रास्नादि कवाथ
रास्ना, मुलेठी, गिलोय, अरंडी, बलाबीज, अमलतास, गोखरू, कटु परवल और अड़ूसा को बराबर मात्रा में लेकर इसका कवाथ (काढ़ा) बना लें।
इस कवाथ को रास्नादि कवाथ (काढ़ा) कहते हैं। इस काढ़े में अरंडी का तेल मिलाकर पीने से आंतों की वृद्धि समाप्त हो जाती है।
अन्य उपाय
अरंडी का तेल
अरंडी का तेल, दूध और इंद्रायन की जड़ का कवाथ (काढ़ा) पीने से अंडकोष वृद्धि समाप्त हो जाती है।
कल्क (लेप के लिए)
बच और सरसौ का कल्क बनाके इसका वृषण के ऊपर लेप करने से सूजन उतर जाती है।
लेप
सेहजन की छाल और सरसौ का वृषण की सूजन पर लेप लगाने से सूजन कम हो जाती है। अंडकोष वृद्धि की सूजन के अलावा, कफ और वायु भी गायब हो जाता है।
वृद्धिबाधिकावटी
आंत्र वृद्धि को रोकने के लिए गोली
शुद्ध पारा, शुद्ध गंधक, लौह भस्म, ज़िंक भस्म, तांबे की भस्म, कांस्य भस्म, शुद्ध हरताल, नीला थोथा, शंख भस्म, कौड़ी भस्म, सौंठ, काली मिर्च, पीपली, त्रिफला, जंगली कालीमिर्च, विडंग, समुद्रसोख, कर्चुर, पिपलामूल, कालीपाट, कपूर कचरी, बच, इलायची के बीज, देवदार और पंचलवण (पांच प्रकार का नमक) ये सभी औषधिया को बराबर भागों में लेकर उसका चूर्ण बना लें।
हरड़ का चूर्ण करके उसका कवाथ (काढ़ा) बना लें।
हरड़ के कवाथ (काढ़े) को तैयार चूर्ण में अच्छी तरह मिलाकर 0.25 तोला (2.5 ग्राम से 3 ग्राम) की गोलियां बना लें। इस औषध को वृद्धिबाधिकावटी कहा जाता है।
इस गोली को पानी के साथ निगलने और नियमित रूप से लेने से असाध्य आंतों की वृद्धि भी नष्ट हो जाती है।
गिलटी का उपचार
हरड़ को कूट के इसका कल्क बनाएं। कल्क को अरंडी के तेल में भून लें और फिर उसमें पीपली और सेंधा नमक डालकर इसका सेवन करने से गिलटी से छुटकारा मिलता है।
जीरा, कपूर कचरी, कट, तेजपता और बेर को कांजी के साथ कूट ले फिर इसका लेप करने से गिलटी मिट जाती है।
नपुंसकता
पौरुषेय रोग
जिन रोगो को जातीय रोग में समाहित किया हुआ है ऐसा कुछ पौरुषीय से सबंधित रोगो के बारे मे यहां हम संक्षेप में जानने, समझने और गहराई से समाधान के बारे मे देखेंगे।
ज्यादातर लोग जातीय समस्याओं का खुलासा नहीं करते हैं जिससे समस्या और बढ़कर बड़ा रूप ले कर सताती है। पहले तो ये जातीय गुप्त रोग और उपर से मन ही मन सहन करने के कारन मानसिक तनाव से रोग ओर बढ़ जाता है।
साथ ही रोगी और कमजोर हो जाता है। तो सबसे पहले समझें कि बीमारी क्या है? और इसका कारण क्या है।
पौरुषत्व दोष
पुरुषत्व दोष के अंतर्गत हम वीर्य का अभाव या वीर्य की कमी के कारण उत्पन्न होने वाले दोषों को देखेंगे। ऐसे दोषों को नपुंसकता के रूप में जाना जाता है और ऐसे दोषों को पांच प्रकार का कहा जाता है।
१ इर्ष्यक
२ आसेक्य
३ कुंभीक
४ सुगन्धि
५ षंढ
ऊपर बताए अनुसार नपुंसकता पांच प्रकार की होती है। कहते हैं नपुंसकता का दोष गर्भधारण के समय से ही माता-पिता के दोष के कारण गर्भ रहते समय से ही गर्भ में रहता है, जो जन्म के बाद सही समय पर प्रकट होता है।
आइए पांच प्रकार की नपुसंकताओं के बारे में जानने और समाधान खोजने का प्रयास करें।
इर्ष्यक
ऐसा रोगी संभोग में तब प्रवेश कर सकता है जब वह किसी अन्य पुरुष या जानवर को यौन क्रिया में लिप्त देखता है। ऐसा रोगी उत्तेजित होने पर सेक्स नहीं कर सकता क्योंकि उसका लिंग अचेतन रहता है।
जब वह दूसरे की यौन क्रीड़ा देखता है तब उसके लिंग में चेतना आती है और तभी वह सेक्स करने के लिए समर्थ हो पाता है। और इसलिए इसका दूसरा नाम “दग्योनी” भी है।
आसेक्य
एक प्रकार से इस स्थिति को अनुवांशिकी कहा जा सकता है, क्योंकि ऐसी स्थिति माता -पिता का रज – शुक्र की कमी के कारण पैदा होती है। ऐसा व्यक्ति तब तक संभोग (सेक्स) नहीं कर सकता जब तक कि वो मुंह में किसी और का लिंग लेकर मैथुन करके इसका वीर्यपान न कर ले।
स्खलित वीर्य को पिने के बाद ही उसे संभोग करने की क्षमता प्राप्त होती है। इसलिए इसे “मुखयोनी” भी कहा जाता है।
कुंभीक
जो पुरुष अपने गुदाद्वार में अन्य पुरुष के द्वारा संभोग कराने से तृप्त हो जाता है, वह कुंभीक नपुंसक कहलाता है। ऐसा पुरुष अपनी इच्छा के अनुसार सेक्स नहीं कर सकता लेकिन उसके लिंग में पहले गुदा मैथुन कराने के बाद ही चेतना आती है, और इसलिए वह गुदा मैथुन के बाद ही सेक्स कर सकता है।
एक अन्य मत के अनुसार जब वह किसी महिला के साथ यौन संबंध बनाता है तो उसके लिंग में चेतना नहीं आती है, इसलिए वह सबसे पहले महिला के गुदा में ही मैथुन (सेक्स) करता है। लिंग गुदा में खड़ा होता है, लिंग में चेतना आती है, और फिर वह संभोग (सेक्स) कर सकता है।
ऋषि कश्यप कहते हैं कि यदि श्लेष्म रेत (वीर्य) वाला पुरुष मासिक धर्म वाली महिला के साथ सम्भोग करता है, तो उस समय महिला का काम शांत नहीं होता है और यदि महिला उस समय गर्भवती हो जाती है, तो गर्भ में होने वाला बच्चा कुंभीक पैदा होता है।
सुगन्धि
जो पुरुष पुतीयोनी से उत्पन्न होता है उसे सुगन्धि नपुंसक कहा जाता है। इसे “सौगन्धिक” के नाम से भी जाना जाता है। ऐसा पुरुष किसी दूसरे पुरुष के लिंग को सूंघने के बाद ही या किसी महिला की योनि को सूंघने के बाद ही उसके लिंग में उत्थान होता है और वह संभोग कर सकता है। इसे “नासयोनी” भी कहा जाता है। (“पुतीयोनी” के बारे में योनि के सबधित लेख में चर्चा देखें)
षंढ
आयुर्वेद के अनुसार – क्षणिक सुख भोगने के लिए मूर्ख पुरुष और स्त्री मासिक धर्म के दौरान निचे पुरुष और स्त्री ऊपर रहके संभोग करते हैं, और यदि गर्भ रहता है, तो ऐसे गर्भ से पैदा होने वाला बच्चा षंढ हो जाता है। . ऐसी नपुंसकता दो प्रकार की होती है।
1 नर षंढ
2 नारी षंढ
नर षंढ
यदि कोई बच्चा पुरुष पैदा होता है, तो उसके लक्षण महिला के समान होते हैं। उनके तौर-तरीके, वाणी आदि एक महिला के समान होते हैं, और उनको दाढ़ी या मूंछ भी नहीं होते। ऐसा षंढ दूसरे पुरुष को अपने ऊपर सुलाकर अपने ही लिंग में वीर्य का स्खलन करवाता है।
नारी षंढ
यदि कोई बच्चा स्त्री रूप में पैदा होता है, तो उसमें पुरुष के समान गुण होते हैं। उसके सभी हावभाव एक आदमी की तरह हैं। वह एक स्तनहीन, दाढ़ी मूंछ वाली और दूसरी महिला को निचे लेटा के उसके साथ योनि को रगड़ती है।
ऊपर बताए गए पांच प्रकार की नपुंसकता में से पहले चार प्रकार के – 1 इर्ष्यक, 2 आसेक्य, 3 कुंभीक, और ४ सुगन्धि में वीर्य होता है। विकृती से भरे हरकते उन्हें मैथुन (सेक्स) करने की शक्ति देते हैं। यह विकृती से भरी प्रवृत्ति उनमें स्वाभाविक और जन्मजात होती है।
लेकिन षंढ नपंसुको में वीर्य नहीं होता, वे मैथुन (सेक्स) नहीं कर सकते।
वर्तमान युग में देखे जाने वाली होमोसेक्स्युअल, लेस्बियन, साथ साथ विकृत मानस और विचारो धारण करने वाला और विकृत यौन क्रियाएँ करने वाला ऊपर वर्णित प्रकारों में शामिल हैं।